गुरुवार, 21 अगस्त 2014

कहानी

एक कहानी, जो कभी पूरी नहीं हुई

बारिश तीन दिनों से लगातार हो रही थी.
डॉक्टर ने अपना चश्मा ऊपर चढ़ाया, जो बार बार उसकी नाक पर फिसल आता था, और मिसेज़ चौपड़ा की ओर देखा. उनका सिर सोफे पर एक ओर लुढ़का हुआ था और वे अपनी आँखें बन्द होने के बावजूद भी सब कुछ देख रही थीं.
”समझ में नहीं आता यह बारिश आखिर कब रुकेगी ?“ त्रिखा ने कहा, जो खिड़की के पास खड़ा हुआ बाहर देख रहा था. खिड़की के शीशों पर कोहरा जमा हुआ था और बाहर कुछ भी देख पाना संभव नहीं था. वह दिन में कई बार यह प्रश्न पूछ लिया करता था. यह जानते हुए कि किसी के पास भी इसका कोई उत्तर मौजूद नहीं है. शुरू शुरू में सब उसके प्रश्न का कोई न कोई जवाब दे दिया करते थे, पर अब उस पर कोई ध्यान नहीं देता.
”मिस्टर त्रिखा, आप चाहें तो इस बारिश को रोक सकते हैं.“ डॉक्टर ने कहा. जब वह मजाक करने वाला होता था, तब उसके होठ चौड़े हो कर फैल जाया करते थे. शायद ऊँघती हुई मिसेज़ चौपड़ा को इसका कुछ अन्दाजा हो गया था. वे अपनी आँखें खोल कर डॉक्टर की बात ध्यान से सुनने लगी थीं.
”मैं ? अच्छा ! कैसे ?“ त्रिखा अब तक अपनी आँखें खिड़कियों के पार गड़ाए हुए था.
”आप इतिहास के प्रोफेसर हैं, बाहर जाइए और बारिश से कहिए कि या तो वह रुक जाए, वरना आप ‘भारतीय इतिहास में इति और हास का महत्व’ पर लेक्चर दे डालेंगे. फिर देखिए, कैसे नहीं रुकती बारिश !“ डॉक्टर ने मुस्कराते हुए कहा.
मिसेज़ चौपड़ा जोर से हँस पड़ीं, ”इति और हास के महत्व पर लेक्चर !“ उनकी नींद पूरी तरह उड़ चुकी थी.
लेकिन त्रिखा पर डॉक्टर के मज़ाक का कोई असर नहीं पड़ा. उसके चेहरे पर मुस्कान की क्षीण सी लकीर भी नहीं उभरी. वह वैसे ही खिड़की से बाहर देखता रहा, हालांकि उसे कुछ नज़र आ रहा होगा, यह बात संदेहास्पद थी.
मिसेज़ चौपड़ा ने विषय को आगे बढ़ाना ठीक समझा, ”रुक भी सकती है, डॉक्टर. बचपन में मेरी नानी कहा करती थीं कि कढ़ाई उल्टी रख दो, तो बारिश रुक जाती है. अगर बारिश कढ़ाई से डर  सकती है, तो लेक्चर की तो बात ही क्या ! आखिर लेक्चर कढ़ाई पर भारी पड़ता है भाई !“ और वह जोर से हँस दी.
डॉक्टर अब भी मुस्करा रहा था. उसकी मुस्कान अपने मज़ाक पर कम और त्रिखा की खीज पर ज्यादा थी. त्रिखा ने अपने मुँह से शीशेे पर गर्म हवा फैंकी, जिससे एक बड़े हिस्से में भाप जम गई. उसने उस पर लिखा नॉनसेन्स, जो कोई नहीं देख पाया.
तभी सुपर्णा वहाँ आई. वह सबसे कम उम्र की थी और वहाँ फँस कर भी परेशान सबसे कम थी. किसी को याद नहीं कि कभी उसने वहाँ से बच निकलने की फिक्र की हो. डॉक्टर का विचार था कि वह अपने वर्तमान से एस्केप कर रही थी.
एक पल रुक कर उसने सबको देखा और फिर भी मिसेज़ चौपड़ा के पास जाकर बैठ गई.
”और क्या चल रहा है ?“ उसने पूछा.
”त्रिखा अभी थोड़ी देर में लेक्चर देने वाले हैं.“ मिसेज़ चौपड़ा  ने गंभीरता से कहा.
सुपर्णा को इस उत्तर की आशा नहीं थी. आश्चर्य से उसने त्रिखा को देखा, ”प्रोफेसर, यह मैं क्या सुन रही हूँ ! लेक्चर और यहाँ ! क्या आपका क्लास लेना इतना जरूरी है !“
इस बार डॉक्टर का ठहाका पूरे हॉल में गूँज गया. मिसेज़ चौपड़ा भी हँसने लगी थीं. हालांकि त्रिखा खीजा हुआ था, पर उसे लगा कि वह इन सबसे कट कर नहीं रह सकता. हल्की सी मुस्कान लिए वह भी एक सोफे पर बैठ गया, ”ऐसा कुछ नहीं सुपर्णा. आज सुबह से इन्हें खिंचाई करने के लिए कोई मिला नहीं था. अब मैं पकड़ में आ गया हूँ.“
सुपर्णा को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि वह हँसे कि चुप रहे. पर इसके पहले कि वह कुछ कहती, एक जोरदार आवाज हुई. वे चारों भाग कर खिड़कियों पर इकट्ठे हो गए. त्रिखा ने एक खिड़की खोल दी और सब बाहर देखने की कोशिश करने लगे थे. ठण्डी हवा के तेज झौंके ने सब को सिहरा दिया था. बादलों का एक झुण्ड तेजी से भीतर चला आया था.
”लगता है, एक और लैण्ड स्लाइड हुआ है.“ डॉक्टर ने कोहरे में अपनी आँखें गड़ाते हुए कहा. बादल जमीन तक चले आए थे और उनके आर पार कुछ भी देख पाना असंभव हो रहा था.
”लगता तो ऐसा ही है.“ मिसेज़ चौपड़ा की सहमी हुई आवाज आई.
”हो सकता है कहीं बिजली गिरी हो !“ त्रिखा बोला.
”मुझे चौकीदार की फिक्र हो रही है. वह सुबह रास्ता पता करने गया था और अब तक लौटा नहीं है. कहीं उसे कुछ हो न जाए !“ सुपर्णा ने चिन्ता से कहा.
थोड़ी देर तक कोई कुछ नहीं बोला. लकड़ी की छत तेज बारिश में लगातार बज रही थी. उसमें जगह जगह से पानी चूने लगा था. जब कभी कोई पहाड़ी बन्दर छत पर कूदता, तो सारा डाक बंगला हिलने लगता था. वे सब अपनी अपनी साँस रोके खतरे के गुज़र जाने की प्रतीक्षा करते रहते. छत के गिर जाने का डर सभी के मन में समाया हुआ था.
त्रिखा ने एक बार फिर खिड़की बन्द कर दी. अन्दर आती हुई तीखी हवा मानो बीच में से कट गई थी पर अन्दर घुस आए बादलों ने सब कुछ धुँधला कर दिया था. ठण्डे पड़े फायर प्लेस के दोनों ओर लगी तस्वीरों के शीशे कोहरे में नहा गए थे.
मिसेज़ चौपड़ा साइड वाले छोटे सोफे पर बैठ गईं थीं और उन्होंने अपना शॉल कस कर अपने चारों ओर लपेट लिया था. चिन्ता की लकीरें उनके माथे पर सबसे पहले उभरती थीं. उनकी नींद पूरी तरह उड़ चुकी थी.
त्रिखा अपना मोबाइल चैक कर रहा था. वह मिसेज़ चौपड़ा की जगह जा बैठा था.
”सिग्नल आए ?“ डॉक्टर ने पूछा और अपना मोबाइल जेब से निकाल कर देखने लगे. वे अपनी उसी पुरानी जगह पर आ टिके थे.
”नो सिग्नल !“ त्रिखा के कहा और मोबाइल वापस जेब में रख लिया.
”आएँगे कहाँ से ! पूरे इलाके की लाइट कटी पड़ी है.“
”लाइट के अलावा भी उनके पास कई स्टेण्ड बाई अरेन्जमेन्ट्स होते हैं. पर लगता है, एक भी काम नहीं कर रहा.“
सुपर्णा, जैसे इस सब बातों से अस्पर्श, मिसेज़ चौपड़ा के पास वाले साफे पर बैठी हुई थी. उसने पुलोवर पहन रखा था, जो उसे ठण्ड से कुछ हद तक बचाए हुए था.
तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया.
”जरूर चौकीदार होगा.“ त्रिखा ने उठ कर दरवाजा खोल दिया. चौकीदार ही था. बारिश से तरबतर. वह कमरे के बाहर वाराण्डे में अपना रेन कोट और जूते उतार रहा था.
”कोई खबर ? कोई उम्मीद ?“ उसके अन्दर आते ही त्रिखा ने दरवाजा बन्द किया और पूछा.
”कोई उम्मीद नहीं, साबजी. जगह जगह लैण्ड स्लाइड हुआ है. एक तो अभी मेरे देखते देखते हुआ. मरते मरते बचा, साबजी.“ वह थर थर काँप रहा था. सर्दी से उतना नहीं, जितना आसन्न मृत्यु के भय से.
सुपर्णा उसके पास आई, ”आप रसोई में चले जाओ और गैस जला कर तप लो.“
वह जाते जाते रुका, ”मैं अपने लिए चाय बना रहा हूँ. आप लोग पीएँगे क्या ?“
”हाँ भई, मैं तो पीऊँगी.“ मिसेज़ चौपड़ा ने कहा.
”मैं सबके लिए बना लेता हूँ.“ उसने कहा और वहाँ से चला गया.
सहसा सुपर्णा वहाँ से उठ कर जाने लगी.
”अब आप कहाँ चलीं ?“ डॉक्टर ने पूछा.
”मैं रसोई में जा रही हूँ. उसकी मदद करने. अब वह चौकीदार नहीं है. वह भी हममें से एक है और हमारी ही तरह तूफान में फँसा हुआ है.“ उसने कहा और बिना कोई प्रतिक्रिया सुने वहाँ से चली गई.

***

मंगलवार, 19 अगस्त 2014

कविता

 दुख

झरती रही चाँदनी, चुपचाप
दुःख बन कर
रात भर

पेड़ों के पत्तों ने
संभाला उसे अपने आँचल में,
हरी घास ने सहेजा उसे अपने कोमल कंधों पर
और झील का निष्चल पानी
पीता रहा दुःख के दुःख को
रात भर,

पर दुःख था कि सिसकता ही रहा
ओस की मानिन्द आँसू बन करं
उसकी पीड़ा को सान्त्वना देने वाला स्पर्ष
उससे विदा लेकर
कर गया था उसे
अकेला,
बहुत अकेला
रात भर.

***

लघु कथाएँ

फोटो फ्रेम

अब वे कहीं नहीं थे, पर उनकी बूढ़ी आँखें ठीक वैसी ही थीं,  फोटो फ्रेम में, चश्में के पीछे से बाहर झांकती हुई..... वे सारा दिन खिड़की के बाहर लगी रहती, स्थिर, ठहरी हुईं..... जब हवा चलती, खिड़की के पर्दे हिलने लगते और बाहर का आंगन नजर आने लगता. पतझड़ के पीले, बुझे हुए पत्ते आवारा उड़ते रहते. कुछ बच्चे वहाँ हमेशा होते और उनकी आवाजें हवा में घुल कर किसी नौसिखिये की संगीत लहरी सी बिखरी होती.... फिर वे वहाँ अपना होना तलाशने लगते, जो कहीं नहीं होता..... और तब, वे एक बार फिर मर जातेे.



यथास्थिति

सूरज बुझ चुका था और शाम ने चुपके से शराब पी ली थी. पेड और पहाड़ और झील और बादलों ने बहकना शुरू कर दिया था. परिन्दों ने अकबका कर अपने नन्हे चूजों को अपने आगोश में ढक लिया था. किसी अनहोनी की आशंका से सहमी हवा चलना तक भूल गई थी.
”क्या कुछ होने वाला है ?“
”नहीं, यही तो दुःख है. कुछ नहीं होने वाला.“



संवेदनहीनता

कोई बना बनाया रास्ता नहीं था, पर यात्रा जारी थी.
उसने पाया कि लोग जल्दी में थे, उस अंधे रास्ते में जो कुछ आए, उसे पीछे धकेल कर आगे जाने की जल्दी में थे..... पर उसे कोई जल्दी नहीं थी. वह ‘उसेे’ बचा कर रखना चाहता था, भले ही इस प्रयास में वह स्वयं पीछे छूट जाए. वह इतना कृतध्न नहीं बन सकता था कि यात्रा के जिस अंतिम पड़ाव को उसनेे देखा तक नहीं, उसे पाने के प्रयास में वह, ‘वह’ गंवा दे जो षुरू से उसके साथ रहा है....
पर चाह कर भी वह उसे संभाल न सका और एक दिन उसने पाया कि जिसे वह हमेशा अपने साथ रखना चाहता था, जिसे वह सच करना चाहता था, वह उसकी आँखों के सामने देखते ही देखते कहीं गिर गया.
वह उसका एक सपना था...इससे पहले कि वह अपने सपने को उठा पाता, पीछे से दौड़ कर आते लोगों ने उसे पांवों तले कुचल दिया था....... लोग आगे निकल रहे थे और वह था कि एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा पा रहा था. वह पीछे , बहुत पीछे रह गया था. उसे दुख पीछे रह जाने का था भी नहीं, दुख था सपने के कुचले जाने का..... उसे पता भी नहीं चल पाया कि उसके दुःख ने उसे एक पाषाण प्रतिमा में बदल दिया था



उपस्थिति

वे आराम कुर्सी पर सिर टिकाए बैठे रहते, सिर के सफेद बाल कहां खत्म होते और कहां दाढ़ी षुरू होती, कुछ पता ही नहीं चलता.उनकी ऐनक नीचे नाक पर खिसकी होती, गोद में हमेषा कोई किताब खुली होती और वे ध्यान से उसे पढ़ रहे होते.... कभी कभी आंखें सामने दरवाजे की ओर लगी होतीं, जैसे कोई आने वाला हो, पर आता कोई नहीं था, बल्कि वे ही कहीं जाने की तैयारी में बैठे दिखाई देते.....
किताबों में उनका समय बसता. वे कहते, किताबें वे नहीं होतीं जिन्हें हम पढ़ते हैं, बल्कि वे होती हैं जिनमें हम बसे होते हैं.
सुबह घर में चहल पहल बनी रहती, पर नौ बजते बजते घर खाली हो जाता. बड़े काम पर चले जाते और बच्चे स्कूल. वे अकेले रह जाते. अकेला होते ही वे अपनी पसंद की कोई किताब खोल कर उसके किसी पात्र से बतियाने लगते. कभी रस्कलनिकोव से, तो कभी गोरा से. वे अपनी युवावस्था से ही अन्ना केरेनिना पर मोहित थे, और पारो तो उनके सपनों में आया करती थी. कभी उन्हें लगता कि उन्हें भी योके और सेल्मा की तरह किसी बर्फ से ढके मकान में रहने का अनुभव करना चाहिए, तो कभी हीरामन का भोला मन उन्हें गहरे तक छू जाता......
रात की खामोशी में अपने बिस्तर पर पड़े पड़े वे खिड़की से बाहर देखा करते. चाँदनी पेड़ की पत्तियों में उलझी होती. वे आकाश के तारों को पढ़ रहे होते और खुद का होना महसूस किया करते....



शेष

”क्या यह सच है कि आज हम आखिरी बार मिल रहे हैं ?“ लड़के ने पूछा. लड़की रेस्टोराँ में ठीक उसके सामने बैठी हुई थी.
”तुम जानते हो..... हम बिछुड़ने के लिए ही मिले थेे.“
”हाँ, कह तो ठीक रही हो तुम..... “
”उदास मत हो यार. लाइफ नेवर एन्ड्स.“
”नहीं, मैं उदास नहीं. चीयर्स फॉर बेटर टुमारो.“
”चीयर्स....“ लड़के ने एक बड़ी घूंट ली.
थोड़ी देर बाद लड़का रेस्टोराँ की खिड़की से लड़की को जाते हुए देख रहा था. उसे लगा, जैसे लड़की सड़क के बीचों बीच क्षण भर के लिए रुकी हो, कुछ सोचती हुई, शायद पीछे मुड़ कर उसे देखना चाहती हो, लेकिन अगले ही पल उसने अपना इरादा बदल दिया हो.
दूसरी ओर पहुँचते ही लड़की को ऑटो मिल गया और वह तुरंत ही वहाँ से चली गई. पर लड़का अपनी जगह से हिल तक नहीं पाया. अभी भी वह लड़की के बारे में ही सोच रहा था. वह जा कर भी पूरी तरह गई नहीं थी, बच गई थी, उसके मन में बच गई थी. एक दिन आएगा, जब वह इस बचे हुए से अपनेे पूरे होने तक की यात्रा कर लेगा.
क्या लड़की के मन में वह भी बचा रह गया होगा ?