मंगलवार, 19 अगस्त 2014

लघु कथाएँ

फोटो फ्रेम

अब वे कहीं नहीं थे, पर उनकी बूढ़ी आँखें ठीक वैसी ही थीं,  फोटो फ्रेम में, चश्में के पीछे से बाहर झांकती हुई..... वे सारा दिन खिड़की के बाहर लगी रहती, स्थिर, ठहरी हुईं..... जब हवा चलती, खिड़की के पर्दे हिलने लगते और बाहर का आंगन नजर आने लगता. पतझड़ के पीले, बुझे हुए पत्ते आवारा उड़ते रहते. कुछ बच्चे वहाँ हमेशा होते और उनकी आवाजें हवा में घुल कर किसी नौसिखिये की संगीत लहरी सी बिखरी होती.... फिर वे वहाँ अपना होना तलाशने लगते, जो कहीं नहीं होता..... और तब, वे एक बार फिर मर जातेे.



यथास्थिति

सूरज बुझ चुका था और शाम ने चुपके से शराब पी ली थी. पेड और पहाड़ और झील और बादलों ने बहकना शुरू कर दिया था. परिन्दों ने अकबका कर अपने नन्हे चूजों को अपने आगोश में ढक लिया था. किसी अनहोनी की आशंका से सहमी हवा चलना तक भूल गई थी.
”क्या कुछ होने वाला है ?“
”नहीं, यही तो दुःख है. कुछ नहीं होने वाला.“



संवेदनहीनता

कोई बना बनाया रास्ता नहीं था, पर यात्रा जारी थी.
उसने पाया कि लोग जल्दी में थे, उस अंधे रास्ते में जो कुछ आए, उसे पीछे धकेल कर आगे जाने की जल्दी में थे..... पर उसे कोई जल्दी नहीं थी. वह ‘उसेे’ बचा कर रखना चाहता था, भले ही इस प्रयास में वह स्वयं पीछे छूट जाए. वह इतना कृतध्न नहीं बन सकता था कि यात्रा के जिस अंतिम पड़ाव को उसनेे देखा तक नहीं, उसे पाने के प्रयास में वह, ‘वह’ गंवा दे जो षुरू से उसके साथ रहा है....
पर चाह कर भी वह उसे संभाल न सका और एक दिन उसने पाया कि जिसे वह हमेशा अपने साथ रखना चाहता था, जिसे वह सच करना चाहता था, वह उसकी आँखों के सामने देखते ही देखते कहीं गिर गया.
वह उसका एक सपना था...इससे पहले कि वह अपने सपने को उठा पाता, पीछे से दौड़ कर आते लोगों ने उसे पांवों तले कुचल दिया था....... लोग आगे निकल रहे थे और वह था कि एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा पा रहा था. वह पीछे , बहुत पीछे रह गया था. उसे दुख पीछे रह जाने का था भी नहीं, दुख था सपने के कुचले जाने का..... उसे पता भी नहीं चल पाया कि उसके दुःख ने उसे एक पाषाण प्रतिमा में बदल दिया था



उपस्थिति

वे आराम कुर्सी पर सिर टिकाए बैठे रहते, सिर के सफेद बाल कहां खत्म होते और कहां दाढ़ी षुरू होती, कुछ पता ही नहीं चलता.उनकी ऐनक नीचे नाक पर खिसकी होती, गोद में हमेषा कोई किताब खुली होती और वे ध्यान से उसे पढ़ रहे होते.... कभी कभी आंखें सामने दरवाजे की ओर लगी होतीं, जैसे कोई आने वाला हो, पर आता कोई नहीं था, बल्कि वे ही कहीं जाने की तैयारी में बैठे दिखाई देते.....
किताबों में उनका समय बसता. वे कहते, किताबें वे नहीं होतीं जिन्हें हम पढ़ते हैं, बल्कि वे होती हैं जिनमें हम बसे होते हैं.
सुबह घर में चहल पहल बनी रहती, पर नौ बजते बजते घर खाली हो जाता. बड़े काम पर चले जाते और बच्चे स्कूल. वे अकेले रह जाते. अकेला होते ही वे अपनी पसंद की कोई किताब खोल कर उसके किसी पात्र से बतियाने लगते. कभी रस्कलनिकोव से, तो कभी गोरा से. वे अपनी युवावस्था से ही अन्ना केरेनिना पर मोहित थे, और पारो तो उनके सपनों में आया करती थी. कभी उन्हें लगता कि उन्हें भी योके और सेल्मा की तरह किसी बर्फ से ढके मकान में रहने का अनुभव करना चाहिए, तो कभी हीरामन का भोला मन उन्हें गहरे तक छू जाता......
रात की खामोशी में अपने बिस्तर पर पड़े पड़े वे खिड़की से बाहर देखा करते. चाँदनी पेड़ की पत्तियों में उलझी होती. वे आकाश के तारों को पढ़ रहे होते और खुद का होना महसूस किया करते....



शेष

”क्या यह सच है कि आज हम आखिरी बार मिल रहे हैं ?“ लड़के ने पूछा. लड़की रेस्टोराँ में ठीक उसके सामने बैठी हुई थी.
”तुम जानते हो..... हम बिछुड़ने के लिए ही मिले थेे.“
”हाँ, कह तो ठीक रही हो तुम..... “
”उदास मत हो यार. लाइफ नेवर एन्ड्स.“
”नहीं, मैं उदास नहीं. चीयर्स फॉर बेटर टुमारो.“
”चीयर्स....“ लड़के ने एक बड़ी घूंट ली.
थोड़ी देर बाद लड़का रेस्टोराँ की खिड़की से लड़की को जाते हुए देख रहा था. उसे लगा, जैसे लड़की सड़क के बीचों बीच क्षण भर के लिए रुकी हो, कुछ सोचती हुई, शायद पीछे मुड़ कर उसे देखना चाहती हो, लेकिन अगले ही पल उसने अपना इरादा बदल दिया हो.
दूसरी ओर पहुँचते ही लड़की को ऑटो मिल गया और वह तुरंत ही वहाँ से चली गई. पर लड़का अपनी जगह से हिल तक नहीं पाया. अभी भी वह लड़की के बारे में ही सोच रहा था. वह जा कर भी पूरी तरह गई नहीं थी, बच गई थी, उसके मन में बच गई थी. एक दिन आएगा, जब वह इस बचे हुए से अपनेे पूरे होने तक की यात्रा कर लेगा.
क्या लड़की के मन में वह भी बचा रह गया होगा ?

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