दुख
झरती रही चाँदनी, चुपचाप
दुःख बन कर
रात भर
पेड़ों के पत्तों ने
संभाला उसे अपने आँचल में,
हरी घास ने सहेजा उसे अपने कोमल कंधों पर
और झील का निष्चल पानी
पीता रहा दुःख के दुःख को
रात भर,
पर दुःख था कि सिसकता ही रहा
ओस की मानिन्द आँसू बन करं
उसकी पीड़ा को सान्त्वना देने वाला स्पर्ष
उससे विदा लेकर
कर गया था उसे
अकेला,
बहुत अकेला
रात भर.
***
दुःख भी सार्थक हो उठा... बहुत सुन्दर
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